दंगल अच्छी फिल्म है पर " चक दे इंडिया " दुबारा नहीं बन सकती, पढ़े पूरा रिव्यु !
"चक दे में लड़कियां अपनी मर्जी से हॉकी खेल रही थीं. दंगल में उनसे जबरन कुश्ती लड़वाई जा रही है "
फिल्म: दंगल
डेरेक्टर: नितेश तिवारी
कास्ट: आमिर खान, साक्षी तंवर, फातिमा सना शेख, सान्या मल्होत्रा
चूंकि आप इस पन्ने पर फिल्म का रिव्यू पढ़ने आए हैं, मैं बता देता हूं कि फिल्म अच्छी है. देखने में मज़ा आएगा. अच्छे से फिल्माई गई है. गाने अच्छे हैं, एक्टिंग अच्छी है, किरदार अच्छे हैं. 3 घंटे की इस फिल्म में आप कहीं भी बोर नहीं होंगे.
प्लॉट
महावीर फोगाट देश के लिए मेडल जीतना चाहते थे. जीत नहीं पाए. बेटा पैदा करने की आस लिए रहे. लेकिन बेटियां पैदा होती रहीं. महावीर के मन में देश के लिए मेडल जीतने का जूनून था. धुन सवार थी कि अपने बेटे से वो करवाएंगे जो खुद न कर सके. जब बेटियां पैदा होने के कारण निराश हो गए, मालूम पड़ा कि ‘छोरियां किसी छोरे से कम हैं के?’, और लगा दिया दोनों बेटियों को ट्रेनिंग में. बेटियों के सलवार कमीज़ शॉर्ट्स और टीशर्ट में बदल गए. लोग ताने देते रहे. गांव वाले बदनामी करते रहे, लेकिन महावीर ने हिम्मत नहीं हारी. लड़कियों ने खूब लड़कों को चित्त किया. और बड़ी बेटी गीता बन गई नेशनल चैंपियन. जब भटकने लगी, तो बाप ने संभाल लिया. और धीरे-धीरे कॉमनवेल्थ गेम्स में देश के लिए मेडल जीत लाई. ब्रोंज नहीं, सिल्वर नहीं, गोल्ड.
फिल्म गीता और बबिता फोगाट कि असल जिंदगी पर बनी है. लेकिन फिल्म को देखते हुए आप पाएंगे कि ये गीता और बबिता से ज्यादा महावीर फोगाट की कहानी है. और महावीर फोगाट को एक रेसलर से ज्यादा आमिर खान के कैरेक्टर को एस्टेब्लिश करने में खर्च हुई है. मैं यहां फिल्म के हर एक सीन का जिक्र नहीं करूंगी. क्योंकि ये फिल्म देखने वाली है. पर कुछ सवाल हैं, जो सिर्फ फिल्म के ऊपर ही नहीं, हम सबपर एक समाज के तौर पर उठाए जाने चाहिए.
अपने सपनों का बोझ बच्चों पर डालना कितना सही है?
महावीर कुश्ती लड़ता था. लेकिन गोल्ड जीतने का उसका सपना पूरा न हो सका. ये उसी तरह है जैसे चक दे इंडिया में कबीर खान खुद को हारा हुआ महसूस करते हैं. और अपनी मेहनत, लगन और सच्चाई का प्रूफ देने के लिए औरतों की हॉकी टीम के कोच बन जाते हैं. चाहे चक दे की हॉकी टीम हो, या गीता-बबिता, पूरा खेल एक पुरुष (एक बड़ा स्टार : शाहरुख़/आमिर) के पर्सनल लक्ष्य को पूरा करने के लिए है. फर्क सिर्फ इतना है कि चक दे में लड़कियां अपनी मर्जी से हॉकी खेल रही थीं. और दंगल में उनसे जबरन कुश्ती लड़वाई जा रही है.
महावीर की बेटियां कभी बाप के साथ कुश्ती देखने नहीं जातीं. कभी छिपकर कुश्ती वालों के दांव कॉपी करने की कोशिश नहीं करतीं. इसे समाज की ट्रेनिंग ही कह लें, पर लड़कियां कभी कुश्ती की तरफ रुझान नहीं दिखातीं. वो कभी बाप के पास जाकर ये नहीं कहतीं, पापा कुश्ती सिखा दो. वो कुश्ती सीखती हैं क्योंकि महावीर उन्हें कुश्ती सिखाना चाहता है. अपने जीवन का सपना अपनी बेटियों के जीवन में बोना ही नहीं, थोप देना चाहता है.
अगर महावीर को बेटा होता और वो कवि बनना चाहता, तो?
महावीर का विश्वास पौरुष में है, बल में है. महावीर जिस बेटे की आस लगाए बैठा था, अगर वो बेटा पैदा हो जाता, तो उसके पास भी कोई ऑप्शन न बचता. तब महावीर में, और उड़ान फिल्म में बाप का किरदार निभा रहे रोनित रॉय में आपको कोई फर्क न दिखता. चूंकि वो बेटे नहीं, बेटियां हैं, हमें संदेश ये मिलता है कि महावीर अपनी बेटियों को चूल्हे-चौके से दूर कर एक प्रगतिवादी कदम उठा रहे हैं. उन्हें निक्कर में खिलवाकर मॉडर्न बना रहे हैं. लेकिन लड़की की जगह लड़के को रख दीजिए, तो आपको एक निर्दयी, पुरुषवादी बाप दिखेगा, जो इस बात की परवाह नहीं करता कि उसके बच्चे असल में खुद क्या करना चाहते हैं. अगर महावीर को बेटा पैदा होता, और कवि बनना चाहता, तब भी क्या हम महावीर के रवैये को प्रोग्रेसिव बताते?
लड़की की मुक्ति पुरुष की थोपी हुई मुक्ति क्यों है?
गीता और बबिता जब सड़क पर शॉर्ट्स और टीशर्ट में निकलती हैं, और महावीर उनके लिए गांव वालों के ताने सुनता है, हमसे ये अपेक्षित होता है कि हम मानें महावीर फोगाट कितनी खुली सोच का है. लेकिन ये मत भूलिए, महावीर की बेटियां केवल उसके जीवन में एक बेटे की कमी पूरी कर रही थीं. अगर महावीर की पत्नी ने पहले लड़का जना होता, तो गीता और बबिता चूल्हा-चौका ही कर रही होतीं. महावीर के मन में तब ये ख़याल नहीं आता, कि चूल्हा चौका करने वाली लड़कियों को सलवार-कमीज़ के अलावा कुछ और भी पहनाया जा सकता है
महावीर का ईगो गीता की ट्रेनिंग से बड़ा क्यों है?
गीता नेशनल स्पोर्ट्स अकैडमी में ट्रेनिंग के लिए सेलेक्ट हो जाती है. अंदर अच्छा परफॉर्म करती है. अब वो बड़े कोच से नयी टेक्नीक सीख रही है. उसकी सहेलियां बन गई हैं. वो बाल भी बढ़ा रही है. जब वो अपनी बहन को नई टेक्नीक सिखा रही है, महावीर नाराज हो जाता है. महावीर का ईगो इतना बड़ा है कि बुढ़ाती उम्र में अपनी ही बेटी को कुश्ती के लिए ललकारता है. कमज़ोर शरीर के चलते हार जाता है. और इस सीन के बाद वो अपनी बेटी से किसी तरह की माफ़ी नहीं मांगता. न ही उसपर गर्व करता है. बल्कि मुंह फुला लेता है. और तो और, आगे की कहानी में गीता को नई टेक्नीक से खेले गए मैचों में हारते हुए दिखाया जाता है. सिर्फ ये साबित करने के लिए कि महावीर की ट्रेनिंग किसी भी नए कोच की ट्रेनिंग से बेहतर है. जाहिर सी बात है, एक कैरेक्टर के तौर पर ये सिर्फ महावीर को एस्टेब्लिश ही नहीं करता, दर्शकों को ये बताता है कि पुराने तरीके और देसी ट्रेनिंग ही बेहतर है. कि अपने पिता की बात न मानना आपको जीवन में हरवा सकता है. इससे पिता ईगो ही नहीं, पपुरुषवाद मसाज होता है.
नेलपॉलिश लगाने वाली लड़की मेडल क्यों नहीं जीत सकती?
लड़कियों को छोटी उम्र से ये सिखा देन कि उन्हें तो बड़े होकर मेकअप ही करना है, एक सेक्सिस्ट परवरिश है. लेकिन उसी समय लड़कियों को ये सिखाना कि नेलपॉलिश लगाना और DDLJ जैसी फ़िल्में देखना उनके खेल को खराब करता है, भी बराबर गलत है. ये एक नए तरह का स्टीरियोटाइप एस्टेब्लिश करता है. कि मेकप करने वाली, लंबे बाल वाली लड़कियां जीवन में कुछ नहीं कर सकतीं. छोटी उम्र में जब जबरन गीता के बाल काटे गए थे, वो खूब रोई थी. घर से दूर रहकर उसने अपने स्त्रीत्व को समझा. फ़िल्में देखीं, फिर से बाल बढ़ाए. लेकिन प्लॉट ने उसके स्त्रीत्व को हराया. वो आगे के कई मैच हारी. और तब तक हारी जब तक उसने पिता को फ़ोन कर सॉरी नहीं बोला. जब तक फिर से अपने बाल नहीं काटे.
जिस तरह खूबसूरत दिखने के लिए लंबे बाल होना एक स्टीरियोटाइप है, उसी तरह ये मानना कि बड़े बालों में वो ताकतवर नहीं रहेगी, भी एक स्टीरियोटाइप है. जब भी स्त्री से उसकी सेक्शुअलिटी छीननी होती है, उसके बाल काट उसको सजा दी जाती है. मसलन, गेम ऑफ़ थ्रोन्स में सरसी लैनिस्टर को सजा देने के लिए सबसे पहले उसके बाल काटे हैं.
छोटी बेटी पिता के बताए हुए रास्तों पर चलती है और इसीलिए जीतती जाती है. घर के बाप, यानी अपने मां के पति की सुनो, ये गीता के लिए सबसे बड़ी सीख होती है. लेकिन क्यों?
महावीर का कैरेक्टर एस्टेब्लिश करने के लिए इतना ड्रामा क्यों?
इस पूरी कहानी का केंद्र महावीर है, ये साबित करने के लिए फिल्म आखिरी तक मेहनत करती है. फिल्म के आखिरी सीन में महावीर को गीता का कोच एक कमरे में बंद करवा देता है, ताकि गीता अपनी जीत का क्रेडिट अपने पिता को न दे. ये अनरियल लगता है. एक कोच को अपनी एक स्टूडेंट के पिता से जलन हो, वो भी इतनी कि उसके खिलाफ साजिश कर उसे बंद करवा दे, एक प्योर बॉलीवुड ड्रामे की तरह लगता है. जैसे कहानी का सबकुछ महावीर के लिए हो. मेडल की चाह से लेकर रची गई साजिशों तक.
फिल्म में नेशनल एंथम क्यों?
ये मेडल देश के लिए जीता गया है, इस बात को एस्टेब्लिश करना इतना जरूरी है कि पूरे 52 सेकंड न नेशनल एंथम बजाय जाता है. दर्शक सिनेमा हॉल में खड़े होते हैं. मालूम नहीं देश की हवा ही इस वक़्त ऐसी है कि फिल्म के क्लाइमेक्स में 52 सेकंड का ब्रेक बनावटी लगता है, या ये सचमुच बनावटी ही है. कहीं आमिर खान का भी अपनी देशभक्ति का प्रमाण देना जरूरी तो नहीं?
जैसा मैंने पहले कहा, दंगल एक फिल्म के तौर पर अच्छी है. मगर ये वो समय है जब हमें सिनेमा में अपनी औरतों को खोजना और पहचानना शुरू कर देना चाहिए.
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I am satisfied and big fan of srk
ReplyDeleteAgree :)
Deleteagreed.... m a huge fan of shahrukh sir.. he is my idol
ReplyDeleteSame Here :)
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